Monday 18 February, 2013

काश! मेरे पास होती कॉमिक्स के हीरो वाली सुपर पावर


बॉलीवुड के उभरते हीरो मियांग चैंग को बचपन में कॉमिक्स बहुत पसंद थीं। जिसकी प्रेरणा उन्हें घर से ही मिली। उनके  पिता को कॉमिक्स काफी पसंद थीं। उनके इस शौक और धनबाद से मुंबई तक के उनके सफर के बारे में उनसे विस्तार से बात की सम्राट चक्रवर्ती ने।
  
प्रश्न: अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए?
उत्तर: मैं मूलरूप से धनबाद का रहने वाला हूं। तीसरी क्लास से ही बोर्डिंग स्कूल चला गया था। तब से ही बाहर हूं। देहरादून, फिर मसूरी, और बाद में कॉलेज की पढ़ाई बंगलौर से हुई। सिर्फ छुट्टियों में ही धनबाद जाता था। अब तो जाना और कम हो गया है। मम्मी की रिटायरमेंट पास है तो वो आजकल समय-समय पर यहां मुंबई आकर मेरे साथ रहती हैं।

प्रश्न: मैंने सुना कि आपके पिताजी कॉमिक्स बहुत पढ़ते थे?
उत्तर: हां, पापा डीसी कॉमिक के बड़े फैन हैं। उन्हें, सुपरमैन, बैटमैन, आयरनमैन कॉमिक्स जैसी कॉमिक्स ज्य़ादा अच्छी लगती हैं। उनके  पास उनकी अलमारी में कई क्लासिक रखेे हैं। लेकिन वो मेरे अलावा किसी और को उन्हें छूने भी नहीं देते।

प्रश्न: तो आपको कॉमिक्स पढऩे की प्रेरणा घर से ही मिली?
उत्तर : दरअसल आदत तो घर से ही शुरू हुई थी। शुरू में चंपक और टिंकल वगैरह हम लोग पढ़ा करते थे। फिर बोर्डिंग में, एक बड़ी रोचक चीज़ होती थी। पैसे तो थे नहीं। पर उस वक्त हमें हर हफ्ते बोर्डिंग में एक गुडी बैग मिलता था, जिसमें एक कोल्ड ड्रिंक, एक चॉकलेट और एक चिप्स का पैकेट होता था। तो सिस्टम ये था कि हम कुछ लड़के आपस में सौदा करते थे, जैसे एक अमर चित्र कथा या कॉमिक्स के बदले एक चॉकलेट।

प्रश्न: आपका चहेता कॉमिक कैरेक्टर या लमहा?
उत्तर: जितनी भी हिन्दी कॉमिक्स निकलती थीं, डायमंड, तुलसी, मनोज, मैंने लगभग सारी पढ़ी हैं। कुछ-कुछ कैरेक्टर बहुत रोचक थे। जैसे तुलसी कॉमिक्स का अंगारा, फि एक रोबोट था जंबो करके या फिर डायमंड के होते थे, चाचा चौधरी, साबू, पिंकी, बिल्लू, उसमें राका ही था जो खांटी खलनायक था, जिसकी कहानी में खूब मारधाड़ होती थी। लेकिन मुझे ज्यादातर राज कॉमिक्स के चरित्र याद हैं। बहुत अच्छे लेखक और इलेस्ट्रेटर होते थे उस वक्त। राज कॉमिक्स में ऐसे होता था, संजय गुप्ता प्रस्तुत करते हैं, लेखक, तरुण कुमार वाही, चित्रांकन, अनुपम सिन्हा। शुरू में, सुपर कमांडो ध्रुव मुझे काफ पसंद था। बाद में मुझे डोगा बहुत पसंद आने लगा। वो बैटमैन की तरह है। एक नकारात्मक पात्र, एक आरोपी, जिसकी न्याय को लेकर हमेशा एक असंगत राय रहती है। साथ ही मेरा नताशा पर क्रश रहता था। सुपर कमांडो धु्रव के साथ उसका हमेशा एक लव-हेट रिलेशन रहता था। वो टेंशन सही थी। ये भी कि वो एक अपराधी थी जो समाज में फिर से अपनी जगह बनाना चाहती थी। वो एलिमेंट बड़ा रोचक था। जिस तरह पात्रों को पन्नों पर उकेरा जाता था वो और आकर्षक लगने लगते थे।

प्रश्न : कामिक्स पढऩे के अपने अनुभवों के बारे में कुछ बताइए?
उत्तर : घर का जो स्टोरेज वाला कमरा था, उस पर मैंने कब्ज़ा किया हुआ था, वहां सिर्फ  मेरी कॉमिक्स भरी पड़ी थी। एक बार जब, चार महीने बाद, मैं किसी छुट्टï पर घर लौटा, तो सोचा थोड़ी धूल साफ कर लूं उस चक्कर में, सुबह से रात तक कॉमिक्स ही पढ़ता रहा। पूरे दिन खाना-पीना कुछ नहीं, कहीं बाहर नही गया। सारी कॉमिक्स फि से पढ़ डालीं। फिर मैं भागकर स्टेशन गया। क्योंकि वहां के स्टॉल्स पर सबसे पहले कॉमिक्स आती थीं। तो मैंने पता किया कि इन चार महीनों में कौन-कौन सी नई कॉमिक्स आयीं हैं? मुझसे क्या-क्या मिस हो गया?

प्रश्न : हमारी जो देशी कॉमिक्स हैं, क्या वो केवल छोटे शहर तक  सीमित हैं?
उत्तर : ऑब्जेक्टिव होकर देखें तो दूसरे देशों में छपने वाली कॉमिक्स की तुलना में यहां की कॉमिक्स का स्तर वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए, लेकिन इस व्यापार में जिस तरह के संसाधन हमारे पास हैं उस हिसाब से देखें तो कामिक इंडस्ट्री ने बड़ा अच्छा काम किया है। दिक्कत ये है कि कई जगह तो हिंदी कॉमिक्स उपलब्ध ही नहीं हैं। फिर हर एक जगह की अपनी स्थानीय भाषा है, इसलिए अब सारी लोकप्रिय कॉमिक्सों का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद होने लगा है। तो हां देसी कॉमिक्स का छोटे शहरों से एक रिश्ता ज़रूर है पर बड़े शहरों में भी काफी लोग इन्हें पढऩा पसंद करते हैं।

प्रश्न : आपने कॉमिक्स से क्या क्या सीखा है?
उत्तर : बहुत कुछ। बल्कि उन्हें देख-देख कर मैंने खुद ड्रा करना शुरू किया। कॉमिक पैनल, उन्हें बनाने की कला और उनपर लिखने का तरीका मैने यहीं से सीखा। एक टाइम पर तो मुझे शौक था कि न्यूज़पेपर में मेरा अपना कॉमिक स्ट्रिप छपे, पर बाद में संगीत मेरी प्राथमिकता में गया। ये सब धीरे-धीरे छूट गया। मैं किसी दिन फिर वो सब करना चाहता हूं जो पीछे छूट गया है। मैंने उनसे और भी बहुत कुछ सीखा है। जैसे ध्रुव की कॉमिक्स में, कई विज्ञान से जुड़ी कई सारी जानकारियां दी जाती थीं। फिर एक पात्र था, तिरंगा वो शेर--शायरी में बात करता था। जैसे 'फानूस बनकर जिसकी हिफाजत' वगैरह। तो वो सब मैं हिंदी की परीक्षाओं में लिख आता था, और टीचर बहुत इंप्रेस होती थीं।

प्रश्न : हॉलीवुड की तरह हमारे यहां कामिक्स पर आधारित सुपर हीरो पर कोई फिल्म क्यों नहीं बनती?
उत्तर : इस बारे में मैं कुछ कह नहीं सकता। क्या एक मुख्यधारा के बॉलीवुड का बड़ा हीरो नागराज का किरदार निभाना पसंद करेगा? मतलब मैं सोच भी नहीं सकता कि जब रणबीर स्क्रीन पर नागराज बनकर आएगा तो वो कैसा लगेगा? दूसरी बात ये है के इन फि़ ल्मों में काफ ज्यादा कम्प्यूटर ग्राफिक का प्रयोग होता है, जिसपर खर्च बहुत आता है और अगर ऐसी फिल्म बनती भी है तो बनाने वालों को उसे कॉमिक की रेग्युलर कहानी से अलग, एक अलग प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल करना होगा। बिलकुल नए और आधुनिक तरीके से। क्योंकि कॉमिक्स की हमारे यहां कोई खास फॉलोईंग नहीं है। तो हम 'सन ऑफ़  सरदार' में अजय देवगन को सुपर ह्यूमन स्टंट्स करते हुए देख सकते हैं पर अगर वैसी कोई कॉमिक-बेस्ड फिल्म बने तो हो सकता है हम उसपर भरोसा ही करें।
अभी कुछ साल पहले सुनने में आया था की अनुराग कश्यप 'डोगा' बना रहे हैं। मैं ये सुन कर काफी उत्साहित हुआ लेकिन दुर्भाग्य से फिल्म बन ही नहीं पाई।

प्रश्न : कोई एक ऐसी सुपर पावर जो आप पाना चाहते हैं?
उत्तर : ये ताक़त दो हीरोज के पास थी। नागराज और अश्वराज। इच्छाधारी शक्ति, ये मुझे बहुत रोमांचक लगता था कि आप अपनी मरजीसे किसी का या कोई भी रूप धर सकते हैं। वो पॉवर मुझे चाहिए थी। उस उम्र में तो खुराफ ात ही सूझती थी।

प्रश्न : देसी कॉमिक्स का क्या भविष्य लगता है आपको?
उत्तर : मुझे लगता है कि ऑनलाइन हो जाएंगी। अगर ये इंडस्ट्री थोड़ी और संगठित हो जाए, अच्छा लिखा जाने लगे और उसे सही तरीके से प्रमोट करें, तो भविष्य सुरक्षित है। हाँ, ऑनलाइन कॉमिक्स रिलीज़ करने में पाईरेसी की दिक्कत तो  है, तो ऐसे में उन्हें अपना खर्च निकालने के लिए वैकल्पिक तरीके ईज़ाद करने होंगे।
और मेरे जैसे जो देसी कॉमिक बुक फैन्स हैं, जो आज भी -बुक नहीं, किताबें खरीदते हैं. भले ही ऐसे लोग थोड़े कम हो गए हैं, पर जो हैं वो तो पढ़ेंगे ही।

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