Tuesday 26 February, 2013

झोपडिय़ों में दिन गुजार रहे आतंकवाद से पीडि़त परिवार


आतंकवाद से बचने के लिए गाँव की खुशहाल जि़न्दगी छोड़कर आना पड़ा कैम्प में

आशुतोष शर्मा

रियासी (जम्मू कश्मीर) आंगन में टहलती बकरिओं के एक झुंड के ठीक पीछे, तीन टूटे हुए दरवाज़े शरमाते हुए तीन अलग-अलग छप्परों के अन्दर आने को बुलाते हैं। हर एक छप्पर (जिसकी पैमाइश मुश्किल से 10-10 फी होगी) में  बिखरा हुआ सामान, टूटी हुई छत और दीवारों में दरारें, खस्ता हाल उजड़ी हुई इस जगह को 35 लोग अपना घर कहते हैं। 

ये कहानी इस छप्पर के नीचे रहने वाले सिर्फ  एक आतंकवाद से प्रभावित विस्थापित परिवार की नहीं है, रियासी के तलवाड़ा कैंप में आतंकवाद से प्रभावित विस्थापित गाँववालों के 900 से अधिक परिवार हैं जो बुनियादी सुविधाओं के अभाव में झुग्गी-झोपडिय़ों में अपना जीवन बिता रहे हैं

जम्मू से लगभग 72 किमी की दूरी पर बसाया गया आतंकवाद से प्रभावित विस्थापित लोगों का ये कैंप लगभग 15 साल पुराना है। इस कैंप में दूर दराज़ के पहाड़ों से लोग आतंकियों की गोलियों के डर से घर-बार छोड़कर बसे हैं। हालांकि, कुछेक परिवारों को राहत राशि के नाम पर प्रति परिवार मात्र 1600 रुपये हर माह मिलते हैं, लेकिन कश्मीरी पंडित विस्थापितों की बनिस्बत वह भी ऊंट के मुंह में जीरा ही है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार विस्थापितों को नौ किलो आटा दो किलो चावल और एक पशु के चारे के लिए तीन सौ रुपये प्रति महीना भी मिलना था। विडंबना यह है कि इन लोगों को ये रहत भी नहीं मिल पाती है।

नाजो देवी (59) का परिवार ऐसा ही एक विस्थापित परिवार है जो अपने गाँव की खुशहाल जि़ंदगी से दूर झोंपड-पट्टी जैसे बदहाल कैंप में दिन गुज़ारने को मजबूर है। यहां किसी भी कैंप वाले के पास बैठ जाइए, एक ही ग़म सुनने को मिलता है। सीढ़ीनुमा हरे भरे खेत, पेड़-पौधों से हरे-भरे जंगल, साफ़ -सुथरे नदी नाले, घर का अनाज, दूध-दही, दालें, ताज़ा सब्जी, किस चीज़ की कमी थी। फिर अचानक जि़ंन्दगी डरावनी लगने लगी। आतंकवाद ने मासूम लोगों को अपना निशाना बनाना शुरू किया। कई जगह मासूम लोगों की निर्मम हत्याएं हुई। जान बचाने की खातिर इन लोगों को अपना सब कुछ भुला कर गाँव छोडऩा पड़ा। ये बात 90 के दशक की है।
मुआवजा तो दूर की बात, इन लोगों को सरकारी राशन के लिए भी मारामारी करनी पड़ती है। विस्थापितों को इंसाफ  देने के राज्य और केंद्र सरकार चाहे जितने मर्जी दावे करे, लेकिन सच्चाई कुछ और ही कहती है। पैंथर्स पार्टी की याचिका पर वर्ष 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू संभाग के दो हजार से अधिक विस्थापितों को राहत राशि राशन देने का आदेश दिया था, मगर उस पर भी पूरा अमल नहीं हो पाया है।

नाजो अपने पति रिखी राम, 7 बेटों और 3 बेटियों के साथ इस कैंप में आई थी, लेकिन आज उसके परिवार में 31 सदस्य हैं, लेकिन रहने के लिए वही तीन छप्पर।

 "तीन कमरों में हमारा परिवार बड़ी मुश्किल से गुज़ारा करता है। बरसात के दिनों में हमारी मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं। गर्मियों में अगर मौसम साफ़  हो तो हम लोग किसी तरह रात में बाहर सो कर या दिन में पेड़ों के नीचे बैठ कर गुजऱ-बसर कर लेते हैं" ये कहना है नाजो देवी का अपनी कैंप की जि़न्दगी के बारे में।   
राजौरी, पुंछ, ऊधमपुर, डोडा, रामबन रियासी जिले के विस्थापित अक्सर ये आरोप लगाते रहते हैं कि सरकार कश्मीर के विस्थापितों को सभी प्रकार की सुविधा प्रदान की है लेकिन उनकी अनदेखी की है। पिछले एक दशक से भी आधिक समय से ये लोग अपने हक की लड़ाई लड़ रहे है।

तलवाड़ा कैंप में रहने वाले कुल 994 परिवारों में से सिर्फ 665 को ही सरकार मुआवजा देती है, जबकि बाकि के 339 को सरकार ने सिर्फ      झुग्गी-झोपड़ी दे कर अपना पल्ला झाड़ लिया है। विस्थापितों की मानें तो कई-कई महीनों तक उन्हें मुआवजे का राशन नहीं मिलता। इसके अलावा तो माइग्रेंट स्कूल में अध्यापकों की संख्या पूरी है और ही उनके टूटे-फू टे शेडों की सरकार द्वारा कभी मरम्मत करवाई गई है।

कैंप में चन्ना गाँव के दलीप सिंह कहते हैं, "आतंकवादिओं ने मेरी गर्भवती पत्नी और चार साल की बेटी की गोली मर कर हत्या कर दी। उस हमले में मुझे भी कई गोलियां लगीं, मगर मैं बच गया। कैंप में कर मैने दूसरी शादी कई सालों के बाद की।" दलीप कहते हैं, "पैसे होने के कारन कारण मैं अपना इलाज ठीक से नहीं करवा सका, इसलिए मेरी सेहत अब भी खराब रहती है, मुझे और मेरे परिवार को सरकार की तरफ से कोई आर्थिक मदद नहीं मिलती।" दलीप मजदूरी करके अपना परिवार चलाता है।

उन दिनों की बातें याद करते हुए गाँव नरकोट के नंबरदार, जो कैंप निवासी भी हैं, "अप्रैल 17, 1998 की बात है, आतंकवादियों ने हमारे गाँव में एक ही रात में 27 लोगों की हत्या कर दी।  अगले ही दिन हमने गाँव खाली कर दिया।"

माइग्रेट एक्शन कामेटी के अध्यक्ष बलवान सिंह कहते हैं, "10 वर्ष पहले डोडा, रियासी रामबन के 1400 परिवारों को पंजीकृत किया था लेकिन सुविधा मुहैया करवाने से उन्हें अभी तक सरकार ने महरूम रखा है।" उन्होंने कहा कि कश्मीर से माइग्रेंट हुए लोगों को सरकार सभी प्रकार की सुविधा प्रदान कर रही है। लेकिन डोडा, रियासी रामबन के विस्थापितों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। "विस्थापित कश्मीरी पंडित और हम लोग एक तरह के हालात के शिकार हैं, फि भी हम से सौतेला बर्ताव है सरकार का। हमने भी जानें गवाई हैं, घर छोड़े हैं। हर तरह से बरबाद हुए हैं फि हमें हमारा हक क्यों नहीं दिया जा रहा?" वो सवाल करते हैं। और अगले हि पल खुद हि जवाब भी  दे देते हैं, "हम लोग विस्थापित कश्मीरी पंडितों की तरह पढ़े-लिखे नहीं हैं। इसीलिए तो आज तक हमें इस लोकतंत्र में अपना हक वसूल करना नहीं आया।"

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