Wednesday 27 February, 2013

हमारी भाग्यवादी मानसिकता



अख़बार में या टीवी पर भविष्यफ बताते समय संवैधानिक चेतावनी अनिवार्य होनी चाहिए।

किसी मनुष्य, समाज या देश में जब भाग्यवाद और अंधविश्वास बढ़ता है तो उसके आत्मविश्वास को लकवा मार जाता है। हमारे देश को भाग्यवादी मानसिकता ने कब और कैसे ग्रसित कर लिया, कहना कठिन है। यह वही देश है जिसे कर्मयोगी कृष्ण ने ललकारा था 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' और मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने कहा था 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा 'परन्तु इसे क्या हो गया जो कहने लगा 'सब किस्मत का खेल है' शायद पराजित मन को समझाने का यह एक तरीका रहा होगा परंतु अब तो भाग्यफ अंधविश्वास बन गया है।

भाग्यवाद और प्रारब्ध में आस्था पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। परंतु आपत्ति की बात यह है कि कुछ लोग पूजा पाठ करके विधाता द्वारा रचित प्रारब्ध को बदलने का दम भरते हैं। एक युवा दंपती का तलाक होने को था और भाग्य जानने का दम भरने वाले नामी सज्जन ने लंबी चौड़ी पूजा बताई और दृढ़तापूर्वक कहा कि तलाक टल जाएगा। चालीस-पचास हजार रुपये की पूजा हुई फि भी तलाक हो गया। यदि टल जाता तो भविष्यवक्ता की वाहवाही होती और पूजा पाठ का प्रताप कहा जाता। प्रोबेबिलिटी (सम्भावना) पचास प्रतिशत तो रहती ही है।

आज हालत यह है कि टीवी पर भोर होते ही राशिफ बताने का सिलसिला शुरू हो जाता है। हम कभी नहीं आजमाते कि कितनी भविष्यवाणियां सही निकलीं और कितनी गलत। उन चैनलों पर जहां देश दुनिया के समाचार आने चाहिए वहां आता है, क्या कहता है भविष्य। यही हाल अखबारों का है जो सप्ताह में एक दिन तो राशिफ ज़रूर छापते हैं, लोग पढ़ते भी हैं। कुछ लोग तो इसी लित ज्योतिष के आधार पर अपना दैनिक कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। बच्चों के दिमाग में जाने अनजाने अंधविश्वास के बीज बो दिए जाते हैं।

कुछ समय पहले भविष्यवक्ताओं ने दिन, माह और वर्ष बताते हुए घोषणा कर दी कि प्रलय आएगी और यह संसार नष्ट हो जाएगा। रेलगाडिय़ों के तमाम डिब्बे खाली चले गए, देश का करोड़ों का नुकसान हुआ और भविष्य बताने वालों से किसी ने यह भी नहीं पूछा कि भविष्यवाणी के नाम पर तुमने यह अफवाह क्यों फैलाई। ऐसे में समाचार माध्यमों की विशेष जिम्मेदारी बनती है कि ऐसी अफ वाहों को भविष्यवाणी कह कर प्रचारित करें। हमारे देश के कानून में यह प्रावधान होना चाहिए कि यदि बताया गया राशिफ या भविष्यवाणी गलत निकले तो प्रभावित व्यक्ति द्वारा कानूनी कार्यवाही की जा सके।

सड़क किनारे तमाम कार्ड लेकर बैठा हुआ तथाकथित भाग्य बताने वाला अपने तोते से भेाले भाले लोगों के भाग्य का कार्ड निकालने को कहता है और लोग उस कार्ड पर लिखे भाग्य पर विश्वास भी करते हैं। कुछ लोग तो मस्तक पर बनी ब्रह्मा की लकीरें पढ़ लेने का दावा करते हैं, तो कुछ हाथ की रेखाएं देखकर भाग्य बताने का दम भरते हैं। जन्म कुंडली देखकर लोग मनुष्य के जीवन भर का भाग्य ही नहीं बल्कि पिछले जन्म का हाल और होने वाली सन्तानों की संख्या तक बताते हैं। वे भूल जाते हैं कि तथाकथित जन्म कुंडली का आधार है जन्म-समय, जिसका अधिकांश मामलों में सही ज्ञान ही नहीं होता। वैसे भी अब तो मन चाहे समय पर ऑपरेशन द्वारा संतान को जन्म दिलाया जा सकता है।

भाग्यवादी मानसिकता तब स्पष्ट सामने आती है जब चुनाव के बाद सरकार बनाने की घोषणा हो जाती है और मत्रिमंडल इसलिए शपथ नहीं ग्रहण करता कि भाग्यशाली दिन दूर होता है। तब तक प्रतीक्षा होती है और सरकारी कामकाज बन्द रहता है, देश और समाज को होने वाली हानि की चिन्ता नहीं होती किसी को। इतनी सावधानी के बाद भी जब सरकार गिर जाती है तब भी वे लोग मुहूर्त की जान नहीं छोड़ते।

किसान को तो भाग्यवाद और अंधविश्वास की मानो घुट्टी पिला दी गई है। यात्रा करने के लिए विचार हेाता है कि मंगल और बुध को उत्तर दिशा में नहीं जाना है, सोमवार और शनिवार को पूर्व की यात्रा वर्जित है और बृहस्पति को दक्षिण दिशा को नहीं जाना। रविवार को बीज नहीं बोया जाता, मंगल को मकान नहीं बनता और बुध को खाट नहीं बुनी जाती। किसान की सल में रोग लग जाए, सल सूख जाए, या कमजोर हो जाए सब भाग्य का खेल माना जाता है। स्कूल में बच्चा फेल हो जाय या गाँव में बीमारी फैल जाए तो दोष भाग्य का होता है। प्रगतिशील किसानों ने सिंचाई के साधन जुटाकर और ग्रीनहाउस बनाकर सल के कमजोर होने या नष्ट होने से बचने के तरीके निकाल लिए हैं.

ऐसा नहीं कि भारत की परंपरा हमेशा भाग्यवादी रही है। यहां के विद्वानों ने बहुत पहले स्पष्ट कहा था कि 'उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि मनारथै: ना हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: अर्थात उद्यम से ही कार्य सिद्ध होते हैं, भाग्य से नहीं, जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुंह में हिरण प्रवेश नहीं करते। फिर भी पता नहीं क्यों हम अपने पूर्वजों की बातें अपने बच्चों को नहीं बताते।

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